Tuesday, March 21, 2017

भारतीय संविधान में नागरिकता : Citizenship in Indian Constitution

         किसी देश की जनसंख्या  में में दो तरह के व्यक्ति हो सकते हैं -
1 - नागरिक
2 - अन्यदेशीय
        नागरिकों को सभी सिविल और राजनैतिक अधिकार होते हैं लेकिन अन्यदेशीय को नहीं।  इसलिए कौन नागरिक है और कौन नहीं ये प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है। संविधान में व्यक्तियों के उन वर्गों का ज़िक्र है जिन्हें संविधान के आरम्भ पर भारत का नागरिक माना जायेगा। संविधान के अनुच्छेद 5 - 8 में नागरिकता से जुड़े प्रावधान थे। भविष्य में नागरिकता से जुड़े कानून बनाने की जिम्मेदारी संसद पर छोड़ी गयी। संसद ने नागरिकता अधिनियम 1955 बनाया। इसमें नागरिकता प्राप्त करने की विधि बताई गयी है।
नागरिकता के सन्दर्भ में दो बिंदुओं के तहत बात की जा सकती है -
(क) - संविधान के अनुच्छेद 5 - 8 के अन्तर्गत संविधान के प्रारम्भ पर नागरिक बने व्यक्ति।
(ख) - नागरिकता अधिनियम 1955 के अन्तर्गत नागरिकता प्राप्ति के तरीके।

(क) - संविधान के अनुच्छेद 5 - 8 के अन्तर्गत संविधान के प्रारम्भ पर नागरिक बने व्यक्ति
(1) - जिस व्यक्ति का भारत के राज्यक्षेत्र में निवास है और भारत के राज्यक्षेत्र में जन्मा है , चाहे उसके माता-पिता की राष्ट्रीयता कुछ भी हो। (अनु o 5 क )
(2) - भारत के राज्यक्षेत्र में निवास करनेवाला व्यक्ति, जिसके माता - पिता में से कोई भारत के राज्यक्षेत्र में जन्मा हो,भले ही उनकी राष्ट्रीयता कुछ भी रही हो या ऐसे व्यक्ति का जन्म कहीं भी हुआ हो। (अनु o 5 ख )
(3) - कोई व्यक्ति जिसका या जिसके माता या पिता का जन्म भारत में नहीं हुआ था परंतु जो -
(अ) - भारत के राज्यक्षेत्र में निवासी, तथा
(आ) - संविधान के प्रारम्भ से ठीक पहले 5 वर्ष की समयावधि हेतु भारत के राज्यक्षेत्र में मामूली तौर से निवासी थे। इस स्थिति में भी माता या पिता की राष्ट्रीयता कुछ भी हो। अर्थात इस हालत में माता या पिता की राष्ट्रीयता तात्विक नहीं है।
(4) - पाकिस्तान से भारत को आव्रजन(Immigration) करने वाला व्यक्ति ;किन्तु यह तब जबकि -
(अ) - अगर वह या उसके माता - पिता में से कोई या उसके दादा - दादी या नाना - नानी में से कोई भारत शासन अधिनियम 1935 द्वारा परिभाषित भारत में जन्मा था ,तथा
(आ ) (1) - उस व्यक्ति ने 19 जुलाई 1948 से पूर्व इस तरह आव्रजन किया था - उसने आव्रजन की तारीख से भारत के राज्यक्षेत्र में मामूली तौर से निवास किया है। ऐसे में आव्रजक(Immigrant) के रूप में रजिस्ट्रीकरण की जरुरत नहीं है। या
(आ)(2) - अगर उसने 19 जुलाई 1948 को या उसके बाद आव्रजन किया था तथा संविधान के प्रारम्भ के पूर्व भारत सरकार द्वारा रजिस्ट्रीकरण हेतु नियुक्त अधिकारी को नागरिक के रूप में रजिस्ट्रीकरण हेतु आवेदन किया था और ऐसे अधिकारी ने (यह स्पष्ट हो जाने पर कि आवेदन करने वाले व्यक्ति ने आवेदन की तारीख से ठीक पहले कम से कम 6 माह तक भारत के राज्यक्षेत्र का निवासी रहा है। ) उसे रजिस्ट्रीकृत किया है। (अनुo 6)
(5) - कोई व्यक्ति जिसने 1 मार्च 1947 के बाद भारत से पाकिस्तान को आव्रजन किया परंतु उसके बाद किसी अनुज्ञा के अधीन भारत लौट आया ,यह अनुज्ञा स्थायी रूप से लौटने या पुनर्वास के लिए विधि के प्राधिकार के तहत दी गयी किन्तु यह तब जबकि वह व्यक्ति अनुo 6 (ख)(2) के तहत बताये गए तरीके से खुद को रजिस्ट्रीकृत करा लेता है। (अनु o 7 )
(6) - संविधान के प्रारंभ की तारीख को विदेशों में रहने वाले भारतीयों के लिए यह प्रावधान किया गया कि यदि उनके नाना - नानी या दादा - दादी में से कोई भारत में जन्मा था (भारत शासन अधिनियम 1935 में परिभाषित भारत ) परंतु वह व्यक्ति भारत से बाहर रह रहा था ,अगर अपने निवास के देश में भारत के कौंसलीय या राजनयिक प्रतिनिधि को आवेदन करता है तो भारत के नागरिक के रूप में रजिस्ट्रीकृत किया जा सकेगा।

(ख) - नागरिकता अधिनियम 1955 के अन्तर्गत नागरिकता प्राप्ति के तरीके
(1) जन्म से नागरिकता
(2) अवजनन द्वारा नागरिकता
(3) रजिस्ट्रीकरण द्वारा नागरिकता
(4) देशीयकरण द्वारा नागरिकता
(5) राज्यक्षेत्र में मिल जाने से नागरिकता
(1) जन्म से नागरिकता - जिस व्यक्ति का जन्म 26 जनवरी 1950 को या उसके बाद भारत में हुआ है वह जन्म से भारत का नागरिक होगा।
(2) अवजनन द्वारा नागरिकता - 26 जनवरी 1950 को या उसके बाद भारत के बाहर पैदा हुआ व्यक्ति अवजनन द्वारा भारतीय नागरिक होगा अगर उसके जन्म के समय उसके माता - पिता में से कोई भारत का नागरिक है।
(3) रजिस्ट्रीकरण द्वारा नागरिकता - अनेक  वर्गों के व्यक्ति रजिस्ट्रीकरण द्वारा खुद को रजिस्ट्रीकृत करके भारतीय नागरिकता प्राप्त कर सकेंगे। वे महिलाएं जिनकी शादी भारत के किसी नागरिक से हुयी है, वे भी भारत की नागरिक होंगी।
(4) देशीयकरण द्वारा नागरिकता - कोई विदेशी , भारत सरकार को देशीयकरण हेतु आवेदन करके नागरिकता प्राप्त कर सकेगा।
(5) राज्यक्षेत्र में मिल जाने से नागरिकता - कोई अन्य राज्यक्षेत्र अगर भारत का हिस्सा बन जाता है तो भारत सरकार तय करेगी कि उस राज्यक्षेत्र के व्यक्ति भारतीय नागरिक होंगे।

नागरिकता का समाप्त होना  - नागरिकता अधिनियम 1955 में नागरिकता समाप्त होने के बारे में लिखा है। चाहे वह नागरिकता अधिनियम 1955 द्वारा प्राप्त नागरिकता हो, या अनु o 5 - 8 के अंतर्गत प्राप्त नागरिकता।
      नागरिकता तीन  प्रकार से समाप्त हो सकती है -
(1)  त्यागने पर - व्यक्ति स्वैच्छिक रूप से त्यागता है तथा किसी अन्य देश की नागरिकता ग्रहण करता है।
(2) पर्यवसान पर - जैसे ही कोई भारतीय नागरिक किसी और देश की नागरिकता प्राप्त करता है वैसे ही भारत की नागरिकता ख़त्म हो जाती है।
(3) वंचित किये जाने पर - अगर किसी व्यक्ति ने छल से भारत की नागरिकता प्राप्त की है या खुद को संविधान के प्रति अभक्त या अप्रीतिपूर्ण दिखाता है तो भारत सरकार ऐसे नागरिक की नागरिकता समाप्त कर सकती है।
         भारत में अमेरिका या स्विट्ज़रलैंड की तरह दोहरी नागरिकता नहीं है बल्कि इकहरी नागरिकता है। भारत के प्रत्येक नागरिक को सभी सिविल और राजनैतिक अधिकार प्राप्त हैं। भले ही उसका जन्म स्थान कुछ भी हो। फिर भी किसी राज्य में स्थायी निवास से कुछ विषयों में कुछ लाभ मिल सकता है --
(क) संघ के अधीन नियुक्तियों में किसी विशेष राज्यक्षेत्र में निवास की कोई पात्रता नहीं है किन्तु अनु o 16(3) के अनुसार संसद को किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के अधीन किसी वर्ग अथवा वर्गों की नियुक्ति हेतु , उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र में निवास की अर्हता हेतु कानून बनाने की शक्ति है। इस सन्दर्भ में कानून बनाने की शक्ति केवल संसद को है। संसद ने सीमित  समय के लिए लोक नियोजन (निवास की अपेक्षा ) अधिनियम 1957 बनाया। इसके द्वारा संसद ने केंद्र सरकार को आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर और त्रिपुरा में अराजपत्रित (Non gazetted)पदों में नियुक्ति हेतु निवास की शर्त के लिए कानून बनाने की शक्ति दी थी। 1974 में ये कानून समाप्त हो गया।
(ख) मूल अधिकार का अनु o 15(1) के अनुसार- केवल धर्म,मूलवंश,जाति,लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करता है। किन्तु इसमें निवास का कहीं भी ज़िक्र नहीं है। अतः राज्य को यह अनुमति है कि वह कुछ विषयों में अपने निवासियों को विशेष फायदे दे सकता है। उदाहरण के लिए शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए फीस लेने के विषय में है।जोशी बनाम मध्य भारत राज्य,1955  के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनु o 15 में निवास के आधार पर विभेद का निषेध नहीं है। अतः राज्य अपने निवासियों को फीस के मामले में छूट दे सकती है।
(ग) जम्मू-कश्मीर राज्य के विधान मंडल को कुछ मामलों में अपने राज्य के स्थायी निवासियों को विशेष अधिकार प्रदान किये गए हैं। जैसे -
1 - राज्य में स्थावर संपत्ति का अर्जन
2 - राज्य सरकार के अन्तर्गत नियोजन
3 - राज्य में स्थायी रूप से बसना
  
       




Sunday, February 26, 2017

मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्त्वों के मध्य सम्बन्ध


             मूल अधिकार व्यक्तियों को मिला होता है। मूल अधिकार, राज्य को क्या नहीं करना चाहिए ये बताता है। वहीँ नीति निदेशक तत्त्व,राज्य को क्या करना चाहिए, ये बताता है। नीति निदेशक तत्त्व राज्य के कर्तव्य हैं। नीति निदेशक तत्त्वों के पीछे न्यायिक शक्ति नहीं है बल्कि  नैतिकता व जनमत की शक्ति है।
             मूल अधिकारों व निदेशक सिद्धांतों के आपसी संबंधों के बारे में न्यायपालिका का दृष्टिकोण बदलता रहा है। कुछ मुकदमों से बात को समझने का प्रयत्न किया जा सकता है।

मद्रास राज्य बनाम चंपाकम दुराई राजन
             न्यायालय ने कहा -अनुच्छेद 37 कहता है कि भाग 4 के उपबंध अर्थात नीति निदेशक तत्त्व किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे, किन्तु ये शासन में मूलभूत हैं और कानून बनाने में इन तत्त्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा। फिर भी नीति निदेशक तत्त्वो की तुलना में मूल अधिकारों को वरीयता दी जाएगी।मूल अधिकार पवित्र हैं और राज्य के निदेशक तत्त्वों को इसके अनुरूप चलना होगा।
बिहार राज्य बनाम कामेश्वर सिंह
           न्यायालय ने कहा - नीति निदेशक तत्त्व शासन के आधारभूत सिद्धांत हैं। हालाँकि वो वाद योग्य नहीं हैं फिर भी राज्य उनकी अवहेलना नहीं कर सकता।
कुरैशी बनाम बिहार राज्य
           न्यायालय ने संविधान की समन्वित व्याख्या पर ज़ोर दिया। अर्थात इसकी व्याख्या इस तरह होगी - निदेशक सिद्धांतों को राज्य अनिवार्यतः लागू करे लेकिन इस प्रक्रिया में मूल अधिकार समाप्त या सीमित ना हो जाएँ।
             1967 में एक मुकदमें में न्यायमूर्ति सुब्बाराव तथा अन्य ने निर्णय सुनाया कि मूल अधिकारों को सीमित किये बग़ैर निदेशक सिद्धांतों को न्यायसंगत रूप से लागू किया जा सकता है।
चंद्र भवन बोर्डिंग और लॉजिंग बंगलौर बनाम मैसूर राज्य
           सर्वोच्च न्यायालय ने मूल अधिकारों और नीति निदेशक तत्त्वों को एक दूसरे का पूरक बताया तथा इनके मध्य किसी विरोध को अस्वीकार किया।
            नेहरू जी ने चौथे संविधान संशोधन प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा था -मूल अधिकारों और निदेशक सिद्धांतों के बीच  टकराव की सूरत में निदेशक सिद्धांतों को प्रधानता मिलनी चाहिए।
          1969 -70 में कई घटनाएं ऐसी हुयीं जिससे कुछ लोगों को लगा कि मूल अधिकार निदेशक तत्त्वों को लागू करने और समाजवादी व्यवस्था स्थापित करने में बाधा बन रहे हैं। ये घटनाएं थीं -
1 - 1969 में अध्यादेश द्वारा बैंकों के राष्ट्रीयकरण को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मूल अधिकारों के उल्लंघन के कारण असंवैधानिक करार देना।
2 - 1970 में अध्यादेश द्वारा भूतपूर्व देशी रियासतों के राजाओं के प्रीवीपर्स को समाप्त करने को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित करना।
          संसद व न्यायपालिका में संघर्ष की हालत हो गयी। सरकार ने कहा कि न्यायालय प्रगतिशील नीतियों को लागू करने में अवरोधक बन रहा है। अस्तु संसद को मूल अधिकारों में संशोधन की शक्ति होनी चाहिए। लेकिन गोलकनाथ मामले में न्यायालय ने मूलाधिकारों में संशोधन पर रोक लगा दी थी।
           1971 में संविधान संशोधन द्वारा संसद की सर्वोच्चता स्थापित करने का प्रयास किया गया और यह व्यवस्था की गयी कि संविधान के किसी भी भाग में संशोधन को किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती।
            25 वें संशोधन (1971) द्वारा अनुच्छेद 31 में एक नयी उपधारा 31 (ग) जोड़ी गयी। जिसमे कहा गया - कोई भी कानून, जो अनुच्छेद 39 (ख)और (ग) द्वारा निर्धारित नीति निदेशक सिद्धांतों को कार्यान्वित करने के लिए बनाया गया हो , उसकी संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह अनुच्छेद 14 ,19 और 31 द्वारा दिए गए मूल अधिकार के ख़िलाफ़ है।इस प्रकार 24 वें तथा 25 वें संशोधन द्वारा मूल अधिकार पर निदेशक सिद्धांतों को प्रधानता प्रदान की गयी।
            केशवानंद भारती के मामले में न्यायालय ने संसद की  संविधान संशोधन शक्ति पर बुनियादी संरचना का प्रतिबन्ध लगा दिया। जिसमें मूल ढाँचे को अक्षुण्ण रखने की बात कही गयी। न्यायालय ने 25 वें संशोधन को तो वैध बताया लेकिन 31 (ग) के उस भाग को असंवैधानिक घोषित कर दिया जिसमें यह प्रावधान था कि - संसद द्वारा निदेशक सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप देने के लिए बनाया गया कानून न्याय योग्य नहीं होगा।

           1976 में किये गए 42 वें  संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31(ग) में परिवर्तन करके यह व्यवस्था दी कि भाग 4 (नीति निदेशक सिद्धान्त) में शामिल सिद्धांतों में से सभी या किसी सिद्धांत को कार्यान्वित करने के उद्देश्य से बनाये गए किसी भी कानून की वैधता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी कि वह मूल अधिकार का अतिक्रमण करता है। इस संशोधन द्वारा मूल अधिकारों पर नीति निदेशक सिद्धांतों को पूर्णतः प्रधानता दे दी गयी।
          1980 के मिनर्वा मिल्स मामले में 42 वें संशोधन के उस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित किया  गया जिसमें सभी नीति निदेशक तत्त्वों को मूल अधिकारों पर प्रधानता दी गयी थी।

          बहरहाल वर्तमान समय में हालत ये है कि अनुच्छेद 39(ख) और (ग) तो मूल अधिकारों से प्रधान हैं,इसके अलावा शेष सारे निदेशक सिद्धांत पूर्व की तरह मूल अधिकारों के अधीन हैं। निष्कर्षतः अनुच्छेद 39 (ख) , (ग) के अलावा  किसी अन्य नीति निदेशक तत्त्व को कार्यान्वित करने के लिए संसद अगर कोई ऐसा कानून बनाती है जो मूल अधिकार का अतिक्रमण करता है, तो वह अवैधानिक होगा।


Wednesday, February 22, 2017

मूल अधिकार और संविधान संशोधन



              अनुच्छेद 13(2) " राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनायी  गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी। "
            अनुच्छेद 368 - "संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके लिए प्रक्रिया"
सवाल ये  उठा कि अनुच्छेद 368 के अधीन किये गए संशोधन को अनुच्छेद 13(2) में लिखित 'विधि' माना जाये या नहीं। इस बात को समझने के लिए कुछ ऐतिहासिक मुकदमों की चर्चा ज़रूरी है।
1 - शंकरी प्रसाद बनाम भारत राज्य,1951
2 - सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य,1964
3 - गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य,1967
4 - केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य,1973
5 - मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ,1980
1 - शंकरी प्रसाद बनाम भारत राज्य,1951
          प्रथम संविधान संशोधन के विरुद्ध दायर किया गया पहला मुकदमा जिसमें संसद के मूलाधिकारों में परिवर्तन की शक्ति को चुनौती दी गयी। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रार्थी की प्रार्थना खारिज़ कर दी। अपने निर्णय में न्यायालय ने कहा कि -संविधान संशोधन को अनुच्छेद 13(2) में उल्लिखित विधि नहीं माना जा सकता। अनुच्छेद 13(2) का लक्ष्य साधारण कानूनों व कार्यकारिणी के द्वारा दिए जाने वाले आदेशों के खिलाफ नागरिकों के मूल अधिकारों को संरक्षण प्रदान करना था। अतः सांविधानिक संशोधन को अनुच्छेद 13(2) के 'विधि' शब्द के अन्तर्गत नहीं माना जा सकता।
2 -  सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य,1964
          यह मुकदमा 17 वें संविधान संशोधन के ख़िलाफ़ था। न्यायालय ने कहा - अनुच्छेद 368 का शीर्षक 'संविधान का संशोधन' है। @*यह याद रखने की बात है कि - संविधान(24 वां संशोधन ) अधिनियम,1971 से पहले अनुच्छेद 368 का शीर्षक था - संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया। जो 24 वें संशोधन के बाद हुआ - संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके लिए प्रक्रिया। *@ भाग 3 (मूल अधिकार) भी संविधान का भाग है। यह कहीं नहीं लिखा है कि संसद भाग 3 में संशोधन नहीं कर सकती,यहाँ तक कि अनुच्छेद 368 के परन्तुक में भी नहीं।
          संविधान निर्माता अगर भाग 3 में संशोधन की शक्ति संसद को नहीं देना चाहते तो वो भाग 3 को अनुच्छेद 4(2) की तरह अनुच्छेद 368 से निकाल सकते थे।
3 - गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य,1967
           इस मुकदमें में कहा गया  कि प्रथम,चतुर्थ और सत्रहवां संशोधन उस सीमा तक असंवैधानिक है,जहाँ तक वह मूल अधिकारों का अतिक्रमण करता है। अतः पंजाब लैंड टैन्योर एक्ट,1953 को अनुच्छेद 14 व 19 के विरुद्ध होने के कारण अवैधानिक घोषित किया जाय।
         सरकार की तरफ से यह तर्क दिया गया कि चूँकि संविधान के 17 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31(1)  का संशोधन करके उपर्युक्त अधिनियम को 9 वीं सूची में शामिल कर लिया गया है  और यह व्यवस्था दी गयी है कि उस सूची  में दिए गए कानून की वैधता को मूल अधिकारों की कसौटी पर ना जांचा जाय।
         अदालत ने माना कि पहला, चौथा और सत्रहवां संशोधन मूल अधिकारों के क्षेत्र का अतिक्रमण करते हैं किन्तु शंकरी प्रसाद और सज्जन सिंह मामले में वैध हैं। न्यायालय ने गोलकनाथ केस को तो ख़ारिज़ कर दिया किन्तु 'भविष्य प्रभावी प्रत्यादेश सिद्धांत '(Doctrine of Prospective Overruling) के अनुसार घोषित किया कि निर्णय भविष्यलक्षी होगा।
        अदालत ने निर्णय दिया कि - इस  मुक़दमे के निर्णय की तारीख के बाद से भारतीय संसद को यह अधिकार न होगा कि वह भाग 3 में कोई संशोधन करे,जिसका लक्ष्य इन अधिकारों को छिनना या कटौती करना हो।
न्यायालय के अनुसार -
1 - संसद को संविधान में संशाधन की शक्ति अनुच्छेद 245,246 व 248 से प्राप्त होती है,और यह कहना गलत है कि अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन शक्ति प्रदान करता है। अनुच्छेद 368 में संविधान में 'संशोधन की प्रक्रिया' का वर्णन है।
2 - हर सांविधानिक संशोधन एक कानून होता है। अतः यह अनुच्छेद 13 (2) की विधि  की परिभाषा  के अंतर्गत आएगा।
3 -  मूल अधिकार संविधान की प्रस्तावना में निहित आदर्शों का ही विस्तृत रूप है और वह संसद की पहुँच से बाहर है।
4 - संविधान में स्वयं उन परिस्थितियों का वर्णन है जब मूल अधिकारों पर प्रतिबन्ध होता है।
5 - जनता अगर मूल अधिकारों में संशोधन की मांग करती है तो संसद को अनुच्छेद 245,248 और संघ सूची की 97 वीं प्रविष्टि में दी गयी शक्तियों का प्रयोग करते हुए एक संविधान निर्मात्री सभा बुलानी चाहिए या जनमत संग्रह कराना चाहिए।

             गोलकनाथ मामले में दिया गया निर्णय संसद की शक्तियों पर कुठाराघात था,इस निर्णय के खंडन हेतु संविधान में 24 वां संशोधन(1971) किया गया।
24 वां संविधान संशोधन,1971 
1 - अनुच्छेद 13 में उपधारा (4)जोड़ी गयी। जिसमें कहा गया कि - यह अनुच्छेद, संविधान संशोधन को अनुच्छेद 13 में लिखित 'विधि' की परिधि से बाहर रखता है।
2 - अनुच्छेद 368 का शीर्षक बदलकर 'संविधान का संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके लिए प्रक्रिया' कर दिया गया।
3 - अनुच्छेद 368 में नया खण्ड जोड़ा गया और कहा गया कि संसद, संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है।
4-राष्ट्रपति किसी भी संविधान संशोधन विधेयक को स्वीकृति देने से इंकार नहीं कर सकता। (अनुच्छेद 74(1))

         24 वें संशोधन के बाद संसद को संविधान संशोधन की असीमित शक्ति प्राप्त हो गयी। संसद ने 25 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31 में एक नयी धारा (ग)जोड़ी। इसमें कहा गया कि - अनुच्छेद 39 को कार्यान्वित करने के लिए ,अगर संसद कोई कानून बनाती है तो ऐसे कानून को किसी न्यायालय में अनुच्छेद 14, 19 और 31 से असंगत होने के कारण ,चुनौती नहीं दी जा सकती।

4 - केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य,1973

1 - इस मुकदमें में 24 वें ,25 वें और 29 वें संशोधनों को मूल अधिकारों के हनन के आधार पर चुनौती दी गयी।
2 - सर्वोच्च न्यायालय ने 7-6 से निर्णय दिया कि - संसद मूल अधिकारों में संशोधन का अधिकार रखती है।
3 - अतः 24 वां ,25 वां और 29 वां संशोधन वैध है।
4 - सर्वोच्च न्यायालय ने संसद की संविधान संशोधन शक्ति पर 'अन्तर्निहित सीमा 'की अवधारणा दी।
5 - न्यायालय ने कहा -संसद मूल अधिकारों में ऐसा कोई भी संशोधन  नहीं कर सकती ,जिससे संविधान के मूल ढांचे या बुनियादी संरचना को क्षति पहुंचती हो।
6 - संसद, संविधान के बुनियादी ढांचे को परिवर्तित नहीं कर सकती।
7 - संशोधन के नाम पर ,संविधान को नष्ट नहीं किया जा सकता।
बुनियादी संरचना - इसमें कई बातें शामिल हैं।
न्यायमूर्ति सीकरी के अनुसार बुनियादी संरचना में शामिल है -
1 - संविधान की सर्वोच्चता
2 - गणतंत्रीय व लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली
3 - संविधान का धर्मनिरपेक्ष स्वरुप
4 - शक्तियों का पृथक्करण
5 - संविधान का संघीय स्वरुप
न्यायमूर्ति शेलत और ग्रोवर ने देश की संप्रभुता ,भाग 3 और भाग 4 को भी बुनियादी संरचना का हिस्सा माना।
न्यायमूर्ति हेगड़े और मुखर्जी ने संविधान की प्रस्तावना को ही संविधान का मूल सिद्धांत माना।

(जिन 6 न्यायधीशों ने विपक्ष में मत दिया ,उनका कहना था कि - संविधान में ऐसा कोई भाग नहीं है जिसका परिवर्तन ना किया जा सके। अस्तु 'अंतर्निहित सीमा का सिद्धांत ' ,संसद के संविधान संशोधन  की शक्ति पर नकारात्मक प्रतिबन्ध है। )

42 वां संविधान संशोधन,1976 - इसके द्वारा संसद ने पुनः असीमित शक्ति प्राप्त करने की कोशिश की। अनुच्छेद 368 में दो नयी धाराएं (4) और (5) जोड़ी गयीं।
अनुच्छेद 368 (4) - इस अनुच्छेद के अधीन संविधान के किसी भी भाग में (42 वें  संशोधन 1976 की धारा 55 के आरम्भ से पूर्व या पश्चात )किये गए संशोधन को किसी भी न्यायालय में किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी।
अनुच्छेद 368 (5) - शंकाओं को दूर करने के लिए यह घोषित किया जाता है कि इस अनुच्छेद के अधीन संविधान के उपबंधों का परिवर्द्धन ,परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन करने के लिए संसद की संविधायी शक्ति पर किसी प्रकार का निर्बंधन नहीं होगा।
        42 वें संशोधन ने संसद को संविधान संशोधन की अपार शक्ति दी तथा न्यायिक पुनर्विलोकन को ख़त्म कर दिया।
5 - मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ,1980 
         इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 42 वें संशोधन के कुछ खण्डों को  ( अनुच्छेद 368 के उपखंड (4) और (5) को ) निरस्त कर दिया। न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले में दिए गए संविधान की बुनियादी संरचना के सिद्धांत को प्रतिपादित कर दिया।
         वर्तमान समय में कोई भी संशोधन जो संविधान की बुनियादी संरचना के खिलाफ है ,न्यायालय द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया जायेगा।







Tuesday, February 21, 2017

भारतीय संविधान : संघात्मक या एकात्मक



अनुच्छेद 1 कहता है -  "भारत ,अर्थात इण्डिया राज्यों का संघ होगा।"
("India ,that is Bharat ,shall be a Union of states. ")

प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ.भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि संविधान की संरचना तो संघात्मक है,किन्तु समिति ने संविधान में (अनुच्छेद 1 ) Federal की जगह Union शब्द का प्रयोग किया है। इसके दो लाभ हैं।
1 - भारत का संघ इकाइयों के बीच किसी करार का परिणाम नहीं है।
2 - इकाइयों को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है।

                      संघात्मक शासन के आवश्यक लक्षण
1 - संविधान की सर्वोच्चता - संघात्मक शासन व्यवस्था में संविधान सर्वोच्च होता है।
2 - संविधान लिखित व कठोर होता है- संविधान लिखित और उसके संशोधन की प्रक्रिया कठिन होती है। 
 - शक्तियों का विभाजन - संघ व इकाईयों/प्रान्तों के बीच शक्तियों का बंटवारा होता है।
         याद रखने वाली बात ये है कि  शक्तियों के  पृथक्करण और विभाजन (Separation of power and Division of power) में अंतर होता है। शक्तियों के पृथक्करण में एक प्रकार की शक्ति को दूसरे प्रकार की शक्ति से अलग किया जाता है। जैसे - कार्यपालिका,विधायिका और न्यायपालिका। शक्तियों के विभाजन में सभी प्रकार की शक्तियों को बांटा जाता है। दूसरे अर्थों में कहा जाय तो 100 ग्राम चना 200 ग्राम चावल में मिला हो तो पृथक्करण का मतलब होगा  चावल और चना को अलग-अलग करना। जबकि विभाजन का मतलब हुआ मिश्रित चना और चावल का बंटवारा।
4 - न्यायालय की सर्वोच्चता तथा न्यायिक पुनर्विलोकन - संघ व इकाइयों के मध्य  विवादों का निपटारा ,संविधान का संरक्षक व व्याख्याता तथा संसद द्वारा बनाये गए नियमों के वैधता की जांच करने के कारण संघीय व्यवस्था में न्यायालय की सर्वोच्चता स्थापित होती है
5 - दो सदनीय संसद - दो सदन होते हैं जिनमें से एक राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है।
भारतीय संविधान में संघात्मकता की स्थिति 
1 - भारत के संविधान में कहीं सर्वोच्चता का ज़िक्र तो नहीं है किन्तु संविधान के उपबंध सभी सरकारों और संस्थाओं पर बाध्यकारी हैं,हालाँकि संशोधन की शक्ति संसद के पास है।
2 - भारत का संविधान एक निश्चित समय में लिखा गया है। इसके संशोधन की प्रक्रिया लचीली और कठोर का शानदार समन्वय है। इसके ज़्यादातर उपबंध सामान्य बहुमत से ,तो कुछ के लिए विशेष बहुमत और कुछ के लिए विशेष बहुमत के साथ आधे राज्यों की सहमति भी चाहिए।
3 - भारतीय संविधान में शक्तियों का विभाजन संघ और प्रान्तों में किया गया है। तीन तरह की सूचियां है -संघ सूची,राज्य सूची और समवर्ती सूची।
4 - भारत के संविधान के संरक्षक के रूप में सर्वोच्च न्यायालय है,जिसके पास उन कानूनों को अवैधानिक ठहराने की शक्ति है, जो संविधान के ख़िलाफ़ हैं। 
5 - भारत में केंद्र में दो सदनीय संसद है। दूसरा सदन (उच्च सदन या राज्य सभा ) राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है।
भारतीय संविधान में एकात्मकता के लक्षण
  1 - भारत में संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह दोहरी नागरिकता का प्रावधान नहीं है,बल्कि इकहरी नागरिकता है।
  2 - भारत में न्यायपालिका का स्वरुप पिरामिड के आकार का है,अर्थात इकहरी न्यायपालिका।
  3 - भारत में राष्ट्रपति द्वारा राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति की जाती है जो राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त अपने पद पर रहते हैं तथा केंद्र के प्रतिनिधि के तौर पर कार्य करते हैं।
  4 - भारत में शक्तियों का बंटवारा केंद्र के पक्ष में है। जैसे-संघ सूची में 97 विषय हैं और राज्य सूची में 66 विषय तथा समवर्ती सूची में 47 विषय हैं। अवशिष्ट शक्तियां संघ के हाथ में हैं। समवर्ती सूची पर संघ और राज्य के कानूनों में विभेद की दशा में संघ का कानून ही मान्य होगा।
  5 - अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद  राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों,सीमाओं या नामों में परिवर्तन  कर सकती है ( अमेरिका में संसद (कांग्रेस ) राज्यों के नाम ,क्षेत्र या सीमाओं में परिवर्तन नहीं कर सकती। इसीलिए उक्ति प्रसिद्ध है कि - अमेरिका अविनाशी राज्यों का अविनाशी संघ है जबकि भारत विनाशी राज्यों का अविनाशी संघ)।
  6 - आपातकाल में (अनुच्छेद 352,356 और 360 ) राज्य  एकात्मक शासन के अंग हो जाते हैं।
   7 - राज्य आर्थिक दृष्टि से केंद्रीय सरकार पर निर्भर हैं।
   8  - भारत में अखिल भारतीय सेवाएं भारत को एकात्मक स्वरुप प्रदान करती हैं।
             निष्कर्षतः कहें तो भारत के संविधान में संघात्मकता और एकात्मकता दोनों के लक्षण पाए जाते हैं किन्तु झुकाव स्पष्टतः एकात्मकता की तरफ है। भारत की परिस्थितियां संयुक्त राज्य अमेरिका से भिन्न हैं अतः संघात्मकता का स्वरुप भी वहां से भिन्न ही होगा। यही बात ब्रिटेन की एकात्मक शासन व्यवस्था और भारत की शासन व्यवस्था के बारे में भी कही जा सकती है।   

Monday, February 20, 2017

भारतीय संविधान की विशेषताएं


भारतीय संविधान दुनिया का सबसे विशाल संविधान है। इसकी विशालता के कई कारण हैं। भारत का बहुभाषायी , बहुसांस्कृतिक समाज तथा इसकी विशेष परिस्थितियां। भारत का संविधान विभिन्न संविधानों और स्रोतों से प्रेरित है। कई जगहों से नियमों को उठाकर अपने देश की परिस्थितियों के अनुसार ढाला गया और लागू किया गया है। 
विभिन्न संविधानों व स्रोतों से प्रेरित
1 - भारत शासन अधिनियम,1935 - इस अधिनियम की बहुत सारी बातें भारतीय संविधान में शामिल कर  ली गयीं।
    - संघीय व्यवस्था और प्रांतीय स्वायत्तता
    - केंद्र में दो सदनीय व्यवस्था
    - अध्यादेश की शक्ति
    - संघ और प्रान्तों के मध्य शक्तियों का बंटवारा
    - तीन सूचियां -संघ सूची,राज्य सूची,और समवर्ती सूची
2 - अध्यादेश,नियम - विनियम,आदेश - मूल संविधान में केंद्रीय संसद द्वारा बनाये गए कानून शामिल हो गए,जैसे-
  - राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम,1952
  - अस्पृश्यता दंड संबंधी अधिनियम,1955
  - जन प्रतिनिधित्व अधिनियम,1957
  - भारतीय नागरिकता अधिनियम,1959
3 - विश्व के अन्य संविधानों का प्रभाव
ब्रिटेन
         -सर्वाधिक मत के आधार पर चुनाव का फैसला
         - संसदीय शासन प्रणाली
         - विधि का शासन
         - विधायिका में अध्यक्ष का पद और भूमिका
         - कानून निर्माण की विधि
         -  मंत्रीमंडल सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी
         -  राष्ट्रपति ब्रिटिश सम्राट की तरह नाममात्र का प्रधान
संयुक्त राज्य अमेरिका 
         -संघात्मक शासन व्यवस्था 
         - मौलिक अधिकारों का अध्याय 
         - स्वतंत्र एवं सर्वोच्च न्यायपालिका 
         - न्यायिक पुनर्विलोकन 
  फ्रांस 
       - स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व का सिद्धांत
       - गणतंत्र 
कनाडा 
      - एक अर्द्ध-संघात्मक सरकार का स्वरुप अर्थात सशक्त केंद्रीय सरकार वाली संघात्मक व्यवस्था
      - अवशिष्ट शक्तियों का सिद्धांत  
      - संयुक्त राज्य अमेरिका में अवशिष्ट शक्तियां राज्यों में निहित होती हैं ,भारत शासन अधिनियम,1935    में  अवशिष्ट शक्तियां गवर्नर जनरल में निहित थीं। जबकि भारत में  अवशिष्ट शक्तियां केंद्र में निहित हैं  जैसा कि कनाडा में है। 
आस्ट्रेलिया 
     -समवर्ती  सूची 
आयरलैंड 
    - नीति निदेशक तत्त्व 
जर्मनी 
    - आपातकालीन उपबंध 
4 - न्यायिक निर्णय - सर्वोच्च या उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए न्यायिक निर्णय भी संविधान के भाग बने। जैसे -चिंतामनराव के मुक़दमे में अनुच्छेद 19 में लिखित उचित सीमाओं की व्याख्या की गयी है। 
5 - प्रथाएं और अभिसमय - ये संविधान के अलिखित भाग हैं। जैसे -राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है ये नियम है किन्तु उसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है जो लोकसभा में बहुमत दल का नेता होता है यह प्रथा है। अथवा राष्ट्रपति लोकसभा को भंग करता है यह नियम है किन्तु ऐसा वह प्रधानमंत्री की सलाह पर करता है यह प्रथा है। 
6 - संवैधानिक टीकाएँ और संविधान विशेषज्ञों के विचार - संविधान पर लिखी गयीं टीकाओं और विशेषज्ञों के विचार को भी संविधान के स्रोत के रूप में स्वीकार किया जाता है। जैसे डी. डी. बसु की 'कमेंट्री ऑन द कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ़ इंडिया', जेनिंग्स की 'सम कैरेक्टरिस्टिक्स ऑफ़ दि कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ़ इंडिया' आदि।  

7 -विश्व का सबसे बड़ा संविधान -मूल संविधान में 395 अनुच्छेद व 8 अनुसूचियाँ थीं। 2016 तक संशोधनों व निरसनों के बाद 450 से ज़्यादा अनुच्छेद व 12 अनुसूचियाँ हैं।

-प्रान्तों के संविधान भी इसमें शामिल हैं।
-जम्मू और कश्मीर के लिए अलग से उपबंध हैं।
-नागालैंड असम मणिपुर आंध्र प्रदेश महाराष्ट्र गुजरात सिक्किम मिजोरम अरुणाचल प्रदेश और गोवा के लिए विशेष उपबंध।
8 -लचीला और कठोर -ज्यादातर उपबंधों में संशोधन आसान है। बहुत कम संशोधनों में राज्य के अनुसमर्थन या विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है।
-संघात्मक व एकात्मक शासन का संयोजन
-न्यायिक पुनर्विलोकन तथा संसद की सर्वोच्चता का एक साथ होना
-संसदीय शासन के साथ निर्वाचित राष्ट्रपति का संयोजन
-एकात्मकता की ओर उन्मुख संघ प्रणाली
-देशी रियासतों का विलय

9 -देशी रियासतों का एकीकरण और विलय

देशी रियासतों के एकीकरण और विलय के बाद भारत के सामने ये समस्या थी कि इन छोटी बड़ी देशी रियासतों को उचित आकर की प्रशासनिक इकाई में कैसे बदला जाये। इसके लिए एक तीन चरण वाली प्रक्रिया अपनायी गयी,जिसे सरदार पटेल के नाम पर ' पटेल स्कीम ' कहा गया।
(1) 216 रियासतों को उनके नज़दीकी प्रान्तों में मिला दिया गया तथा संविधान की पहली अनुसूची के भाग (ख)के राज्यों के राज्य क्षेत्र में शामिल किया गया। जैसे 1950 में कूच बिहार का पश्चिम बंगाल में विलय।
(2) 61 देशी रियासतों को केंद्र शासित प्रदेश में परिवर्तित कर दिया गया तथा इन्हें पहली अनुसूची के भाग (ग)में शामिल किया गया।
(3) देशी रियासतों के समूहों को आपस में मिलाकर नई इकाईयां बनायीं गयीं,जिन्हें राज्य संघ कहा गया। ऐसा पहला राज्य संघ सौराष्ट्र संघ था जिसमें काठियावाड़ और कुछ अन्य रियासतें मिला दी गयी(15 फ़रवरी 1948 )

अंतिम संघ -त्रावणकोर -कोचीन संघ,जो 1 जुलाई 1949 को बना।

275 रियासतों को मिलाकर 5 संघ बनाये गए।
1-मध्य भारत
2 -पटियाला और पूर्वी पंजाब संघ
3 -राजस्थान
4 -सौराष्ट्र
5 -त्रावणकोर और कोचीन
इन पांच राज्यों को संविधान की पहली अनुसूची के भाग (ख ) के राज्यों में शामिल किया गया। इस भाग में शामिल अन्य तीन राज्य थे - हैदराबाद ,मैसूर और जम्मू व कश्मीर।
-राज्यों का पुनः गठन -संविधान (7 वां )संशोधन 1956

==पहली अनुसूची के भाग (क) और भाग (ख) राज्यों को मिलाकर एक ही सूची  में तब्दील कर दिया गया।

Monday, February 6, 2017

भारत का संविधान निर्माण : प्रक्रिया


                  "कांग्रेस स्वतंत्र और लोकतान्त्रिक राज्य का समर्थन करती है। उसने यह प्रस्ताव किया है कि स्वतंत्र भारत का संविधान बगैर बाहरी हस्तक्षेप के ऐसी संविधान सभा द्वारा बनाया जाना चाहिए जो वयस्क मतदान के आधार पर निर्वाचित हो। "      -पंडित जवाहर लाल नेहरू ( 1938 )
                   न केवल नेहरू जी बल्कि गाँधी जी ने  भी 1922 में और कांग्रेस की कार्यकारी समिति ने 1939  में ऐसी ही मांग की थी।
                 1940 में ब्रिटेन में बनी  बहुदलीय सरकार ने स्वीकार कर लिया कि भारत का संविधान,भारत के लोग ही बनाएंगे। ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश मंत्रिमंडल के सदस्य सर स्टेफर्ड क्रिप्स की अध्यक्षता में क्रिप्स मिशन को भारत भेजा।

                                  क्रिप्स मिशन

सदस्य -
1-सर स्टेफर्ड क्रिप्स
2 -लॉर्ड पैथिक लारेंस
3-ए.वी.अलेक्जेण्डर
क्रिप्स मिशन : मुख्य प्रस्ताव
1-भारतीय संविधान की रचना भारत के लोगों द्वारा चुनी गयी संविधान सभा करेगी।
2-संविधान, भारत को डोमिनियन का दर्ज़ा तथा ब्रिटिश राष्ट्रकुल में बराबर की भागीदारी देगा।
3-सभी प्रान्तों और देशी रियासतों से मिलकर एक संघ बनेगा।
4-कोई प्रान्त या देशी रियासत जो इस संविधान को स्वीकार करने को तैयार नहीं हो तो उसे ऐसा करने की आज़ादी होगी और ब्रिटिश सरकार उससे अलग से सांविधानिक व्यवस्था कर सकेगी।
        मुस्लिम लीग और कांग्रेस ,दोनों ने इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया। लीग सांप्रदायिक आधार पर दो राष्ट्र व दो संविधान सभा की मांग पर अड़ी रही  तथा कांग्रेस को भी ये मांग स्वीकार न थी।
क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद कैबिनेट मिशन भेजा गया।
                             
                           कैबिनेट मिशन

        इस मिशन ने अलग संविधान और अलग राज्य के लीग के दावे को तो अस्वीकार कर  दिया किन्तु मिशन की सिफारिशों में लीग के दावे के पीछे के सिद्धांत को  स्वीकार कर लिया।
मुख्य लक्ष्य -
1-एक , भारत संघ होगा ,जो ब्रिटिश भारत व देशी रियासतों से मिलकर बनेगा।
2-संघ की एक कार्यपालिका और एक विधानमंडल होगा। जब विधानमंडल में कोई प्रमुख सांप्रदायिक प्रश्न उठेगा तो उसका विनिश्चय दोनों प्रमुख समुदायों के उपस्थित व मतदान करने वाले  तथा सभी उपस्थित व मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से किया जायेगा।
       प्रान्त इस बात के लिए आज़ाद होंगे कि वे कार्यपालिका और विधानमंडलों के गुट बना लें और प्रत्येक गुट उन प्रांतीय विषयों को अवधारित करने में सक्षम होगा ,जिन पर गुट संगठन की अधिकारिता होगी।
   संविधान सभा के निर्वाचन के बाद मिशन के गुट संबंधी खण्डों की व्याख्या में लीग और कांग्रेस में मतभेद हो गया। ब्रिटिश सरकार ने लीग के पक्ष को सही ठहराया। ब्रिटिश सरकार ने कहा -

"अगर ऐसी संविधान सभा द्वारा संविधान बनाया जाता है जिसमे भारत की जनसँख्या के बड़े हिस्से का प्रतिनिधित्व नहीं है तो हिज मैजेस्टी की सरकार ऐसे संविधान को देश के उस न मानने वाले भाग पर बलपूर्वक लागू नहीं करेगी। "

इस तरह पहली बार ब्रिटिश सरकार ने पहली बार माना कि दो राज्य और दो संविधान सभाएं बन सकती हैं।
 संविधान सभा की पहली बैठक - - 9 दिसम्बर 1946
-मुस्लिम लीग ने भाग नहीं लिया।
20 फरवरी 1947 - ब्रिटिश सरकार का कथन
-- जून 1948 की समाप्ति पर भारत पर ब्रिटिश शासन ख़त्म हो जायेगा।
-- लीग अलग देश की मांग करता रहा और संविधान सभा में शामिल नहीं हुआ।
--ब्रिटिश सरकार ने लार्ड बेवेल की जगह पर लार्ड माउंबेटेन को गवर्नर जनरल बनाकर भेजा।
--26 जुलाई 1947 को गवर्नर जनरल ने पाकिस्तान के लिए अलग संविधान सभा के स्थापना की घोषणा की।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947
(अ ) 4 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद में पेश हुआ।
(ब ) 18 जुलाई 1947 को सम्राट ने अनुमति दी।
            अधिनियम में यह प्रावधान था कि 15 अगस्त 1947 (इसे नियत दिन कहा गया ) भारत शासन अधिनियम में 1935 परिभाषित 'भारत ' के स्थान पर भारत व पाकिस्तान नाम के दो स्वतंत्र डोमिनियन स्थापित किये जायेंगे।

      भारत की संविधान सभा
 प्रथम बैठक -9 दिसम्बर 1946
विभाजित संविधान सभा में से भारत का संविधान बनाने वाली सभा की पुनः बैठक हुयी -14 अगस्त 1947
31 अक्टूबर 1947 को संविधान सभ की सदस्य संख्या 299 थी (विभाजन के कारण)।इनमें भी 284 सदस्य ही 26 नवम्बर 1949 को वास्तव में उपस्थित थे और उन्होंने अंतिम रूप से संविधान पर हस्ताक्षर किये।
संविधान के निर्माण में संविधान सभा की विभिन्न समितियों ने प्रमुख सिद्धांतों की रूप रेखा तैयार की।

 संविधान सभा की महत्वपूर्ण समितियां

क्र.सं.     समिति (सदस्य संख्या)- अध्यक्ष                                                                      
1 -    संघ शक्ति समिति (09)   -- पंडित जवाहर लाल नेहरू                                  
२ -    मूल अधिकार व अल्पसंख्यक समिति (54) -- सरदार वल्लभ भाई पटेल                              
3 -  कार्य संचालन समिति (03) -- डॉ.के. एम.मुंशी                                        
4 -  प्रांतीय संविधान समिति (25) -- सरदार वल्लभ भाई पटेल                              
5 -  संघ संविधान समिति (15) -- पंडित जवाहर लाल नेहरू                            
6 -  प्रारूप समिति (07)  -- डॉ.बी.आर. अम्बेडकर                                


(अ ) समितियों के प्रतिवेदनों पर विचार विमर्श करते हुए सभा ने 29 अगस्त 1947 को एक प्रारूप समिति की स्थापना की,जिसके अध्यक्ष थे -डॉ.भीमराव अम्बेडकर।
(ब)संविधान का प्रारूप सर बी. एन.राव ने तैयार किया। ये संविधान सभा के सलाहकार थे।
(स)प्रारूप की समीक्षा के लिए भी एक समिति बनायीं गयी थी ,जिसके अध्यक्ष अल्लादि कृष्णस्वामी अय्यर थे।
                   संविधान की बैठक तृतीय वाचन के लिए 14 नवम्बर 1949 को हुयी और 26 नवम्बर1949  को वाचन समाप्त हुआ। इसी तारीख को संविधान पर सभा के सभापति के हस्ताक्षर हुए और उसे पारित घोषित कर दिया गया।
                  नागरिकता,निर्वाचन और अंतरिम संसद से जुड़े उपबंधों को तथा अस्थायी और संक्रमणकारी उपबंधों को तुरंत प्रभावी किया गया। शेष (सम्पूर्ण )संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।

भारत का संविधान : प्रस्तावना



"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष , लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा
उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई0 (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छह विक्रमी) को एतदद्वारा
इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"



-प्रस्तावना या उद्देशिका को न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता,किन्तु जहाँ संविधान की भाषा में अस्पष्टता /संदिग्धता होती है ,वहां प्रस्तावना संविधान की विधिक व्याख्या में सहायक होती है। 
-उद्देशिका /प्रस्तावना  बताती है कि संविधान की सत्ता/प्राधिकार का स्रोत क्या है। 
-उद्देशिका बताती है कि संविधान किन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु बना है।
उद्देशिका के शब्द : परिभाषा 

स्वतंत्र और प्रभुत्वसंपन्न - भारत किसी देश का ग़ुलाम नहीं है और अपने घरेलू  और बाहरी निर्णयों को लेने के लिए आज़ाद है। 
समाजवादी - यह अपने सभी नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित करता है। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें उत्पादन के मुख्य साधन सार्वजनिक नियंत्रण /स्वामित्व में हों। उत्पादन में निरंतर वृद्धि हो तथा राष्ट्रीय धन का साम्यापूर्ण वितरण हो। 
पंथ निरपेक्षता राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और राज्य सभी मतों की समान रूप से रक्षा करेगा। 
लोकतंत्र - लोकतंत्र,सामाजिक और राजनीतिक दोनों तरह का होगा। 

"यदि राजनीतिक लोकतंत्र का आधार सामाजिक लोकतंत्र नहीं है तो वह नष्ट हो जायेगा। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है ,इसका अर्थ है-वह जीवन प्रणाली जो स्वतंत्रता ,समानता और बंधुता को मान्यता देती है। जिसमें ये अलग-अलग नहीं माने जाते ,बल्कि त्रिमूर्ति के रूप में माने जाते हैं। "               -डॉ.भीमराव अंबेडकर
                                  
प्रतिनिधिक लोकतंत्र - हमारे संविधान में प्रतिनिधित्व की प्रणाली अपनायी गयी है। इसमें  जनमत संग्रह जैसा कोई प्रावधान नहीं है।  
सामाजिक न्याय - सामाजिक असंतुलन को दूर करना या सामाजिक विभेदों को दूर कर समानता की स्थापना करना। 
आर्थिक न्याय - आर्थिक लोकतंत्र और कल्याणकारी राज्य की स्थापना तथा अवसर की असमानता को दूर करना। 
स्वतंत्रता -विचार ,विचारों को व्यक्त करने ,धर्म के पालन की आज़ादी। 
प्रतिष्ठा और अवसर की समता -प्रत्येक व्यक्ति मनुष्य होने के नाते समान प्रतिष्ठा का अधिकारी है और हर व्यक्ति के साथ अवसरों के मामले में समानता का व्यवहार किया जायेगा। 
राष्ट्र  की एकता, अखंडता और बंधुता - राष्ट्र एक हो इसके टुकड़े न हों ,किन्तु इस विविधता से भरे देश व समाज में एकता व अखंडता तब तक सुनिश्चित नहीं की जा सकती जब तक आपस में बंधुता / भाईचारा न हो।  

42 संविधान संशोधन,1976 -प्रस्तावना में जोड़े गए शब्द 
समाजवादी 
पंथनिरपेक्ष 
अखंडता